देहरादून: उत्तराखंड की राजधानी देहरादून इन दिनों एक अजीबो-ग़रीब माहौल से गुजर रही है, जहां कुछ पत्रकारों की भूमिका पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। पत्रकारिता के मूल उद्देश्य – जनता की आवाज़ उठाने, सच्चाई सामने लाने और सत्ता को सवालों के कटघरे में खड़ा करने की जगह अब कुछ खबरनवीस ‘हरिराम नाई’ की भूमिका में नजर आ रहे हैं। इनका मुख्य कार्य अब खबर बनाना नहीं, बल्कि अफसरों के बीच बैठकर चुगली करना और साजिशों की बुनियाद रखना हो गया है।
सूत्रों की मानें तो यह चंद पत्रकार राजधानी के उच्च पदस्थ अधिकारियों के बीच ऐसी पहुंच बना चुके हैं कि यह अधिकारियों की पोस्टिंग और ट्रांसफर जैसे संवेदनशील मामलों में भी हस्तक्षेप कर रहे हैं। किसी एक अधिकारी की चुगली कर दूसरे के पक्ष में माहौल बनाना इनकी दिनचर्या में शामिल हो गया है। इतना ही नहीं, कुछ अधिकारियों ने तो इन कथित पत्रकारों को अपना सलाहकार तक बना लिया है और इन्हीं की बातों पर भरोसा कर रहे हैं – चाहे वह किसी सहकर्मी के विरुद्ध हो या किसी विभागीय निर्णय के संदर्भ में।
यह स्थिति न केवल पत्रकारिता जैसे जिम्मेदार पेशे को कलंकित करती है, बल्कि सरकारी प्रशासन की गंभीरता और निष्पक्षता पर भी सवाल उठाती है। अफसरों का इस तरह पत्रकारों के माध्यम से अपने ही साथियों की जानकारी हासिल करना और निजी लाभ के लिए साजिशों का हिस्सा बनना बेहद चिंताजनक है।
यहां सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि जब पत्रकार ही अपने पेशे से भटककर अफसरशाही का हिस्सा बनने लगें, तो आम जनता तक सच्चाई कैसे पहुंचेगी? क्या खबरें अब वाकई जनहित में बन रही हैं, या फिर वे चंद अफसरों के इशारे पर केवल व्यक्तिगत हित साधने का माध्यम बन चुकी हैं?
देहरादून की पत्रकारिता जगत में यह मुद्दा अब चर्चा का केंद्र बन गया है। कई वरिष्ठ पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने इस प्रवृत्ति की निंदा करते हुए कहा है कि ऐसे लोगों को पत्रकार कहना भी पत्रकारिता का अपमान है। वहीं कुछ अधिकारियों के इस खेल में शामिल होने से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि सत्ता और मीडिया का यह ‘गोपनीय गठबंधन’ कहीं न कहीं व्यवस्था को दीमक की तरह खोखला कर रहा है।
फिलहाल राजधानी में यह विषय गरमाया हुआ है कि ये ‘हरिराम नाई’ बने खबरनवीस और उनके संरक्षक अधिकारी आखिर किस दिशा में शासन-प्रशासन और पत्रकारिता को ले जा रहे हैं। ये स्थिति अगर यूं ही बनी रही, तो वह दिन दूर नहीं जब आम जनता पत्रकारों पर से भरोसा उठाने लगेगी और सिस्टम में पारदर्शिता केवल एक किताब का शब्द बनकर रह जाएगी।
