देहरादून।
एक समय था जब पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था, जहां संवाद, सूचनाओं का आदान-प्रदान और समाज के मुद्दों पर विचार-विमर्श प्राथमिकता हुआ करता था। लेकिन अब डिजिटल युग और सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच के बीच पत्रकारों के बीच का संवाद धीरे-धीरे संवाद नहीं बल्कि विवाद का रूप लेता जा रहा है।
इन दिनों फेसबुक, व्हाट्सएप और टेलीग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर कई ऐसे ग्रुप सक्रिय हैं जहां पत्रकार, रिपोर्टर और खबरनवीस अपने विचार साझा करते हैं। उद्देश्य होता है खबरों पर चर्चा करना, सूचना साझा करना और पेशेगत एकता बनाए रखना। मगर हालिया घटनाओं के अनुसार, ये ग्रुप अब एक-दूसरे की टांग खींचने और छवि धूमिल करने का अड्डा बनते जा रहे हैं।
सूत्रों की मानें तो कई बार किसी अधिकारी की कार्यप्रणाली या विभागीय गड़बड़ी पर किसी रिपोर्टर द्वारा उठाए गए सवालों पर प्रतिक्रिया देने के बजाय उसे ही व्यक्तिगत निशाने पर ले लिया जाता है। वहीं, कुछ मामलों में तो संवाद को लेकर गलतफहमियां इतनी बढ़ जाती हैं कि रिपोर्टर आपस में ही एक-दूसरे के निजी मैसेज या कमेंट को सार्वजनिक कर, मजाक बनाते हैं। यह सब सिर्फ निजी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने या अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए किया जा रहा है।
कुछ उदाहरणों में यह भी देखा गया है कि कोई पत्रकार जब किसी बड़े मुद्दे को उठाता है, तो कुछ अन्य उसे नीचा दिखाने के लिए उसके पुराने बयानों या किसी छोटी भूल को उछाल देते हैं। इससे न सिर्फ आपसी भरोसा खत्म हो रहा है बल्कि पत्रकारिता की मूल भावना भी कमजोर हो रही है। इस आपसी टकराव का फायदा उन संस्थाओं या अधिकारियों को मिल रहा है जो चाहते हैं कि पत्रकारों में एकता न बने और वे बिखरे रहें।
इस पूरे घटनाक्रम से पत्रकारिता के नए और युवा चेहरों पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है। वे दुविधा में हैं कि किस ग्रुप से जुड़ें और किससे नहीं। डर है कि कहीं कोई बात निजी संवाद से उठकर सार्वजनिक मजाक का हिस्सा न बन जाए।
वरिष्ठ पत्रकारों और मीडिया घराने को अब इस दिशा में हस्तक्षेप करना चाहिए और स्पष्ट दिशा-निर्देश देने चाहिए कि सोशल मीडिया पर संवाद किस मर्यादा में हो। संवाद का स्थान विवाद, व्यंग्य या षड्यंत्र ले ले, तो इससे न केवल पत्रकारिता की गरिमा गिरती है, बल्कि समाज में गलत संदेश भी जाता है।
आज जरूरत है कि संवाद के इन डिजिटल माध्यमों को सूचनाओं के आदान-प्रदान और जनहित के लिए उपयोग किया जाए, न कि व्यक्तिगत एजेंडा साधने या किसी को नीचा दिखाने के लिए। वरना पत्रकारिता का यह सोशल स्पेस जल्द ही एक शोर-गुल वाले ‘पंचायती चौपाल’ में तब्दील हो जाएगा।
