देहरादून, उत्तराखंड की राजधानी होने के नाते यहां न केवल प्रशासनिक गतिविधियां तीव्र रहती हैं, बल्कि मीडिया और अफसरशाही के बीच समीकरण भी खासे संवेदनशील होते हैं। हाल के दिनों में इन समीकरणों में एक नया आयाम जुड़ गया है—जिसे आम भाषा में “भैया-भाई साहब कल्चर” कहा जा रहा है।
अब पत्रकार, अफसरों को उनके पदनामों—जैसे जिलाधिकारी, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, एसडीएम या सचिव—से नहीं, बल्कि “भाई साहब”, “भैया”, “दीदी”, “जीजा जी” या “भाभी जी” जैसे रिश्तेदाराना संबोधनों से पुकारने लगे हैं। जो कभी सम्मान का प्रतीक माना जाता था, अब वह पत्रकारिता की निष्पक्षता और पेशेवर आचरण पर सवाल खड़े कर रहा है।
इस परंपरा के पीछे की सोच साफ है—नजदीकियां बनाना, सूत्रों तक पहुंच आसान करना और व्यक्तिगत लाभ की संभावनाएं खोजना। लेकिन इसकी बड़ी कीमत ईमानदार और नए अफसर चुका रहे हैं। जब किसी जिले में कोई नया अधिकारी आता है, तो वह पत्रकारों के इस “पारिवारिक रवैये” को समझ नहीं पाता। उसे धीरे-धीरे यह एहसास होता है कि अगर वह इन विशेष संबोधनों और व्यक्तिगत संबंधों में नहीं पड़ता, तो उसके ऊपर परोक्ष दबाव बनने लगता है।
स्थानीय पत्रकारिता जगत में यह चर्चा आम हो चुकी है कि कुछ पत्रकारों ने अपने कोर नेटवर्क में अफसरों को इस तरह से लपेट रखा है कि वे खुद को उनकी टीम का हिस्सा मान बैठते हैं। नतीजा यह होता है कि न तो वे अफसर की कोई आलोचना करते हैं, न ही जनहित से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं। इसके विपरीत वे जन-सरोकार की खबरों को भी निजी एजेंडे से जोड़ कर पेश करने लगते हैं।
वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों का कहना है कि यह प्रवृत्ति न केवल पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि इससे प्रशासनिक पारदर्शिता भी प्रभावित हो रही है। जब मीडिया की भूमिका निगरानी की होनी चाहिए, तब वह संबंधों की बुनियाद पर मूकदर्शक बन जाए, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होने लगती हैं।
दूसरी ओर, कुछ अफसरों ने भी इस रवैये को बढ़ावा दिया है। वे ऐसे पत्रकारों को अधिक तवज्जो देते हैं जो उन्हें ‘भैया’, ‘भाई साहब’ कहकर पुकारते हैं। इसके परिणामस्वरूप निष्पक्ष और पेशेवर पत्रकारों को हाशिये पर ढकेल दिया जाता है।
यह “भैया-भाई साहब” कल्चर धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति पैदा कर रहा है, जहां सत्य की जगह संबंध, और सूचना की जगह चाटुकारिता ने ले ली है। अगर समय रहते इस पर आत्मचिंतन और सुधार नहीं किया गया, तो पत्रकारिता और प्रशासन दोनों की साख खतरे में पड़ सकती है।
समय आ गया है जब मीडिया और अफसरशाही के संबंधों को फिर से पेशेवर धरातल पर लाया जाए, ताकि ना केवल जनता का विश्वास बहाल हो, बल्कि नई पीढ़ी के पत्रकार और अफसर भी बिना किसी दबाव के अपने दायित्व निभा सकें।
