25 सालों में डॉक्टरों की लापरवाही से नहीं चेता सिस्टम अब आई व्यवस्था परिवर्तन की याद, पहले की मौतों का कौन देगा हिसाब……?

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देहरादून।
उत्तराखंड के स्वास्थ्य विभाग में हाल ही में घटी एक अहम घटना ने पूरे चिकित्सा तंत्र को झकझोर कर रख दिया है। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के तमाम दावों के बावजूद, डॉक्टरों पर शासन और प्रशासन का भरोसा अब डगमगाता दिखाई दे रहा है। इसका सीधा असर व्यवस्थाओं पर पड़ रहा है। ताजा घटनाक्रम के अनुसार, सरकार अब मेडिकल कॉलेज में डिप्टी डायरेक्टर (एडमिनिस्ट्रेशन) की तैनाती की तैयारी कर रही है, वहीं स्वास्थ्य विभाग में स्वास्थ्य आयुक्त की नियुक्ति को लेकर भी विचार-मंथन शुरू हो गया है।इन दोनों कदमों से यह स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि सरकार अब स्वास्थ्य विभाग की कमान सीधे प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में देने की दिशा में बढ़ रही है। यह फैसला कई सवाल भी खड़े कर रहा है कि आखिरकार 25 सालों के बाद इस अमूल चूल परिवर्तन के पीछे यह हृदय परिवर्तन क्यों… जबकि डॉक्टरों की लापरवाही के कई मामले पहले भी चर्चाओं में रहे है ऐसे में अब अचानक एक घटना ने पूरे सिस्टम को इस मुकाम पर ला खड़ा किया कि व्यवस्था परिवर्तन तक की नौबत महसूस हो गई।। मौजूदा ढांचा, जिसमें डॉक्टर नीतिगत और प्रशासनिक जिम्मेदारियां निभाते हैं, सरकार को अब पर्याप्त प्रभावी नहीं लग रहा।विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यह व्यवस्था लागू हुई तो आने वाले समय में जिले से लेकर मुख्यालय तक की प्रशासनिक बागडोर डॉक्टरों से हटकर गैर-चिकित्सा पृष्ठभूमि के अधिकारियों के हाथ में जाती दिखेगी। इससे चिकित्सकीय स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है और इससे डॉक्टरों के मनोबल पर भी असर पड़ने की संभावना है।प्रशासन के इस रुख को उस हालिया घटना की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है, जिसने सरकार को कड़ा फैसला लेने को मजबूर कर दिया। हालांकि, यह पहला मौका नहीं है जब डॉक्टरों की प्रशासनिक कार्यशैली पर सवाल उठे हों। बीते 25 वर्षों में अनेक बार लापरवाही के आरोप डॉक्टरों पर लगते रहे हैं। कई मामलों में समय पर इलाज न मिलने, रेफरल में देरी, या फिर लापरवाही से हुई मौतों ने स्वास्थ्य तंत्र की कार्यप्रणाली पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाए हैं।यह सवाल उठना लाजिमी है कि अगर एक हालिया घटना सरकार की नींद खोल सकती है, तो दशकों से स्वास्थ्य तंत्र में व्याप्त ढुलमुल रवैये और लापरवाही के चलते जान गंवाने वाले नागरिकों की जिम्मेदारी कौन लेगा? वर्तमान में सरकार के इन फैसलों को दो धाराओं में देखा जा रहा है — एक तरफ स्वास्थ्य तंत्र में अनुशासन और जवाबदेही सुनिश्चित करने की कोशिश के रूप में, तो दूसरी ओर चिकित्सा क्षेत्र की स्वतंत्रता पर प्रशासनिक अंकुश के तौर पर। अब यह देखना अहम होगा कि डॉक्टरों के बजाय प्रशासनिक अधिकारियों को स्वास्थ्य तंत्र में उच्च पदों पर बैठाने का निर्णय कितना कारगर साबित होता है। क्या इससे स्वास्थ्य सेवाओं में सचमुच सुधार आएगा या यह कदम केवल अस्थायी ‘डैमेज कंट्रोल’ साबित होगा? इस पूरी प्रक्रिया में यह जरूरी है कि चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता को प्राथमिकता दी जाए, साथ ही डॉक्टरों की जवाबदेही तय हो, लेकिन उन्हें प्रशासनिक हस्तक्षेप से पूरी तरह निष्क्रिय भी न किया जाए। वरना, जनता को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं की कीमत पर यह नया प्रयोग भारी पड़ सकता है।