देहरादून। उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो एक बात साफ तौर पर दर्ज मिलती है—यहां कोई भी मुख्यमंत्री सत्ता में आता है, उसके हटाए जाने की चर्चाएं लगभग शुरुआत से ही शुरू हो जाती हैं। नित्यानंद स्वामी से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी तक शायद ही कोई ऐसा चेहरा रहा हो, जिसे अपने कार्यकाल के दौरान कुर्सी बचाने की अटकलों और सियासी दांव-पेचों का सामना न करना पड़ा हो। राज्य के 25 साल के इतिहास में यह सिलसिला किसी अपवाद के बजाय एक परंपरा जैसा बन गया है।राजनीतिक दल अक्सर इन चर्चाओं के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं। कभी इसे विपक्ष की साजिश बताया जाता है तो कभी अंदरूनी गुटबाजी का नतीजा। लेकिन सियासत के जानकारों की मानें तो इस पूरी कवायद के पीछे केवल राजनेता ही नहीं, बल्कि एक मजबूत और प्रभावशाली अधिकारियों की लॉबी की भूमिका भी बार-बार सवालों के घेरे में आती रही है।
आरोप यह है कि सत्ता में बैठे मुख्यमंत्री अगर कुछ अधिकारियों के लिए ‘असहज’ हो जाते हैं, उनके कामकाज पर लगाम लगाने लगते हैं या फिर नियम-कानून के तहत फैसले लेने पर जोर देते हैं, तो वही अधिकारी लॉबी सक्रिय हो जाती है। इस लॉबी को एक ही कुर्सी पर लंबे समय तक एक ही चेहरा दिखाई देना रास नहीं आता। वजह साफ है—स्थायित्व के साथ जवाबदेही भी बढ़ती है और यही जवाबदेही कुछ लोगों के हितों पर चोट करती है।उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चाओं का इतिहास गवाह है कि जैसे ही कोई सीएम प्रशासनिक कसावट लाने की कोशिश करता है, तब ‘दिल्ली दरबार’, ‘विधायकों की नाराजगी’, ‘नेतृत्व परिवर्तन’ जैसी अफवाहें हवा में तैरने लगती हैं। कई बार यह चर्चाएं इतनी तेज कर दी जाती हैं कि जनता को लगने लगता है मानो सरकार गिरने ही वाली हो, जबकि हकीकत में सत्ता संरचना वैसी की वैसी बनी रहती है।
इस पूरे खेल में कुछ ऐसे राजनीतिक चेहरे भी सामने आते हैं, जिन्हें अक्सर ‘प्यादे’ कहा जाता है। ये वे लोग होते हैं जो न तो बड़े फैसले लेने की स्थिति में होते हैं और न ही जनाधार के दम पर नेतृत्व को चुनौती दे सकते हैं, लेकिन अधिकारियो की लॉबी के इशारों पर माहौल बनाने का काम जरूर कर लेते हैं। नतीजा यह होता है कि सत्ता अस्थिर दिखने लगती है और प्रशासनिक मशीनरी पर उसका सीधा असर पड़ता है। अगर हालात ऐसे ही बने रहे, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान राज्य के विकास को होगा। बार-बार नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाओं से नीतिगत फैसले लटकते हैं, अफसरशाही निर्णय लेने में हिचकिचाती है और विकास योजनाएं कागजों में सिमटकर रह जाती हैं। वहीं दूसरी ओर, इस अस्थिरता का फायदा वे चंद लोग उठा लेते हैं, जो व्यवस्था में रहकर अपनी जेब भरने में लगे रहते हैं। मौजूदा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के कार्यकाल में भी समय-समय पर ऐसे ही कयास लगाए जाते रहे हैं। कभी चुनावी परिणामों के बाद, तो कभी प्रशासनिक फैसलों को लेकर उनके हटने की अटकलें तेज कर दी गईं। हालांकि हर बार ये चर्चाएं महज अफवाह साबित हुईं, लेकिन सवाल वही बना रहा—क्या उत्तराखंड में कोई मुख्यमंत्री बिना विवाद और बिना कुर्सी हिलने के डर के अपना कार्यकाल पूरा कर पाएगा?
आज जरूरत इस बात की है कि राज्य की राजनीति स्थिरता को प्राथमिकता दे। अधिकारियों और राजनेताओं दोनों को यह समझना होगा कि बार-बार कुर्सी हिलाने की कोशिशें अंततः राज्य और जनता के हितों के खिलाफ जाती हैं। अब समय आ गया है कि देवभूमि की प्रगति में बाधक छद्म भेषधारी कालनेमियों को बेनकाब किया जाए। जो लोग ब्यूरोक्रेसी और राजनीति को रिमोट से चलाकर राज्य को लूट रहे हैं, उन्हें कठोरता से बाहर कर उत्तराखंड को स्थिर, स्वाभिमानी और देश का सिरमौर बनाया जाए।


