देहरादून में बार बने कार्रवाई का केंद्र, लेकिन शराब फैक्ट्रियों पर चुप्पी क्यों ?

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देहरादून: उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में इन दिनों बार एक के बाद एक चर्चाओं और प्रशासनिक कार्रवाइयों के केंद्र बने हुए हैं। जिले में ऐसे कई बार हैं जिन पर अलग-अलग विभाग—जिला प्रशासन, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) और प्रशासन लगातार शिकंजा कस रहे हैं। कहीं अपशिष्ट निस्तारण को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। तो कही पर प्रशासन का चाबुक चल रहा है

जिला प्रशासन और पीसीबी का कहना है कि बारों से निकलने वाले ठोस और तरल अपशिष्ट का प्रबंधन मानकों के अनुसार नहीं हो रहा, जिससे पर्यावरण को खतरा है। ऐसे में बारों पर सील करने या संचालन पर रोक लगाने जैसी कार्रवाई की जा रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या पर्यावरण को नुकसान केवल बार ही पहुंचा रहे हैं?

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शहर के जागरूक नागरिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि यदि अपशिष्ट प्रबंधन ही चिंता का विषय है, तो फिर यह सवाल भी उठना लाज़िमी है कि शहर में मौजूद शराब की फैक्ट्री उन पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं हुई? क्या जिला प्रशासन और पीसीबी के लिए बार ही पर्यावरण के सबसे बड़े खतरे हैं?

इतना ही नहीं, देहरादून के कुआँवाला क्षेत्र में स्थित शराब फैक्ट्री पर भी लंबे समय से शिकायतें सामने आती रही हैं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि फैक्ट्री से निकला केमिकलयुक्त अपशिष्ट से आसपास के जल स्रोतों और कृषि भूमि को नुकसान हो रहा है। बावजूद इसके, फैक्ट्री को अब तक प्रशासनिक शह प्राप्त है और आवेदन मिलने की बात कहकर कार्रवाई टाली जा रही है।

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समाज में यह धारणा बन रही है कि प्रशासन की यह कार्रवाइयाँ चयनात्मक हैं। सवाल यह उठता है कि यदि किसी भी प्रकार का अपशिष्ट पर्यावरण के लिए हानिकारक है, तो नियमों का उल्लंघन करने वाली हर संस्था—चाहे वह बार हो, अस्पताल हो या शराब फैक्ट्री—पर एक समान सख्ती क्यों नहीं दिखाई जाती?

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यहां यह भी उल्लेखनीय है कि देहरादून एक संवेदनशील पारिस्थितिकीय क्षेत्र है, जहां पर्यावरण संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। ऐसे में प्रशासन की जिम्मेदारी बनती है कि वह कार्रवाई में पारदर्शिता और निष्पक्षता बरते। अन्यथा, यह धारणा गहराती रहेगी कि कुछ कारोबारियों पर तो कार्रवाई होती है, लेकिन कुछ प्रभावशाली संस्थानों को छूट मिलती है।

फिलहाल बार संचालक सवाल कर रहे हैं कि क्या केवल उनके ही व्यवसाय को निशाना बनाया जा रहा है, जबकि असली पर्यावरणीय खतरे की जड़ कहीं और है? इस सवाल का जवाब देना अब जिला प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ज़िम्मेदारी है।