तो..अब तंत्र मंत्र और ज्योतिष विद्या के भरोसे होगा सत्ता परिवर्तन…. अफवाओं से पड़ रहा विकास की गति पर असर…

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देहरादून। उत्तराखंड की राजनीति इन दिनों फिर चर्चाओं के गर्म बाज़ार में घिरी हुई है। सत्ता परिवर्तन, मुख्यमंत्री बदलने की अटकलें और नई राजनीतिक समीकरणों की फुसफुसाहट—राज्य की राजनीतिक फिज़ा में यह सब ऐसे तैर रहा है, मानो किसी सब्जी मंडी में सब्जियों के दाम तय किए जा रहे हों। स्थिति यह है कि राजनीतिक गलियारों में फैली अफवाहें अब सामान्य राजनीतिक चर्चा से निकलकर तमाशे का रूप ले चुकी हैं।

बीते दिनों जहाँ कभी विधायकों के दिल्ली पहुंचने की सुर्खियाँ बनाई गईं, वहीं अब व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर तरह-तरह की कल्पनाएँ गढ़ी जा रही हैं। कभी किसी नेता का फ़ोन बंद होने को सत्ता परिवर्तन का संकेत बता दिया जाता है, तो कभी किसी गुट की बैठक को राजनीतिक भूकंप का केंद्र घोषित कर दिया जाता है। इस पूरे खेल में सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि कई बार इन खबरों के पीछे किसी ठोस राजनीतिक हलचल से ज़्यादा ‘जनता का ध्यान खींचने’ की रणनीति काम करती है।

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इतना ही नहीं, जब राजनीतिक अफवाहों की थाली में मसाला कम पड़ता है, तब कुछ नेता कथित पूजा-पाठ, तंत्र-मंत्र और काला जादू के सहारे भी माहौल बनाने की कोशिश में जुट जाते हैं। सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने या उसे बचाए रखने के लिए कौन-सी ‘धार्मिक रणनीति’ या ‘ऊर्जा-प्रबंधन’ तकनीक अपनाई जा रही है, यह भी चर्चा का विषय बना दिया जाता है। राजनीतिक चिंतन से ज़्यादा ध्यान इन गैर-राजनीतिक गतिविधियों पर केंद्रित कर माहौल ऐसा बना दिया जाता है कि राज्य के असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।

वजह चाहे जो भी हो, लेकिन इस सबके बीच आम जनता का एक ही सवाल उभरकर सामने आता है—क्या राज्य की राजनीति वास्तव में विकास के मुद्दों पर केंद्रित है? क्योंकि यह वही उत्तराखंड है जहाँ सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, पलायन और प्राकृतिक आपदाएँ बड़े मुद्दे हैं, जिन पर ठोस और दीर्घकालिक नीति की जरूरत होती है। मगर राजनीतिक नेतृत्व जब खुद ही अनिश्चितता और हवा-हवाई चर्चाओं से घिरा दिखने लगता है, तो विकास की गति पर सीधा असर पड़ना स्वाभाविक है।

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दूसरी ओर, राज्य की राजनीति में इस तरह की अफवाहों और चर्चाओं की परंपरा नई नहीं है। इतिहास गवाह है कि कभी-कभी नेता अपनी कुर्सी पक्की रखने के लिए किस हद तक जा सकते हैं। एक समय तो कुछ नेता अपने घरों की टाइल तक नीली और पीली करवा देते थे, सिर्फ इसलिए कि सत्ता और पद उनके पक्ष में रहें। सत्ता की यह ललक अब भी जस की तस दिखाई देती है।

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इस प्रकार की अफवाहें न सिर्फ सरकार की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं, बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था की स्थिरता पर भी प्रभाव डालती हैं। जब हर कुछ दिनों में मुख्यमंत्री बदलने की खबरें बाज़ार में घूमती रहेंगी, तो नौकरशाही भी दो कदम पीछे हटकर काम करेगी। विकास योजनाएँ धीमी पड़ेंगी और सरकारी मशीनरी ‘अगले आदेश’ का इंतज़ार करती रह जाएगी। उत्तराखंड जैसे संवेदनशील और सीमांत राज्य में ऐसी अस्थिर राजनीतिक चर्चाएँ किसी भी तरह राज्य के हित में नहीं हैं। जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दल और नेता अफवाहों की राजनीति से ऊपर उठकर जनता के मुद्दों और विकास की दिशा में काम करें। मगर वर्तमान हालातों में सवाल यह है—जब चर्चाओं का यह बाज़ार ही नहीं थमता, तो क्या उत्तराखंड अपने विकास की दिशा तय कर पाएगा?