2015 से लापता डॉक्टरों को अब बाहर का रास्त दिखा कर खुद की पीठ थपथपा रहे हुजूर..

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बहुत देर कर हुजूर आते आते है कि कहावत स्वास्थ्य विभाग पर सटीक बैठती है…स्वास्थ्य मंत्री द्वारा 158 डॉक्टरों की सेवा समाप्त करने के आदेश जारी किए गए हैं, और इसे विभाग की बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। इन डॉक्टरों का विभाग में 2015 से लेकर 2021 के बीच आगमन हुआ था, लेकिन ये डॉक्टर अब तक सरकारी अस्पतालों में सेवा देने के नाम पर केवल कागजों तक सीमित रहे थे। आखिरकार, स्वास्थ्य मंत्री ने इनके खिलाफ कदम उठाते हुए उनकी सेवा समाप्त कर दी है। हालांकि, यह कदम देर से लिया गया है, और यदि यह पहले उठाया जाता तो शायद स्थिति कुछ और होती। इसके बावजूद भी स्वास्थ्य मंत्री धन सिंह रावत का कहना है कि उनके इस कदम से कर्मचारियों में डर पैदा होगा…

2015 से 2021 तक का समय

स्वास्थ्य विभाग में 2015 से 2021 तक जिन डॉक्टरों ने जॉइन किया, उनकी नियुक्ति पर सवाल उठे थे। इन डॉक्टरों को सरकारी अस्पतालों में सेवा देने के लिए नियुक्त किया गया था, लेकिन इनकी वास्तविक स्थिति कुछ और ही थी। विभाग में भर्ती तो इनकी हुई थी, लेकिन इन डॉक्टरों ने कभी भी सरकारी अस्पतालों में जाकर अपनी सेवाएं नहीं दीं। इसके बजाय, वे ज्यादातर अनुपस्थित रहे या फिर कार्यों में लापरवाही बरती। कई डॉक्टरों के खिलाफ विभागीय जांच भी की गई, लेकिन सख्त कार्रवाई की बजाय महज औपचारिकताएं पूरी होती रही।

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बड़े सवाल: क्यों नहीं हुआ पहले कदम?

अब स्वास्थ्य मंत्री के इन डॉक्टरों की सेवा समाप्ति में इतना विलंब करने को लेकर सवाल उठता है कि यह कदम इतना देर से क्यों उठाया गया? अगर इन्हें पहले ही विभाग से बाहर कर दिया जाता तो सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सेवाओं की स्थिति शायद बेहतर होती। विशेषज्ञों का मानना है कि यह एक गंभीर मुद्दा था, और इन डॉक्टरों को समय रहते हटाए जाने से सरकारी अस्पतालों में अधिक योग्य और जिम्मेदार डॉक्टरों को काम करने का मौका मिल सकता था।

सरकारी अस्पतालों की स्थिति पर असर

यह फैसला एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, लेकिन इससे पहले सरकारी अस्पतालों में पहले से ही डॉक्टरों की कमी का सामना करना पड़ रहा था। सरकारी अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों की कमी के कारण मरीजों को इलाज में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। कई अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी थी और स्वास्थ्य सेवाओं में ढिलाई देखी जा रही थी। जब 158 डॉक्टरों की नियुक्ति हुई थी, तब उम्मीद थी कि उनकी सेवाएं इन अस्पतालों में काम आएंगी, लेकिन यह उम्मीद पूरी नहीं हो सकी। इसके बजाय, ये डॉक्टर महीनों तक बिना काम के वेतन ले रहे थे।

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प्रशासन की लापरवाही

स्वास्थ्य विभाग ने इस मामले में पर्याप्त निगरानी नहीं रखी। विभागीय अधिकारियों के स्तर पर गंभीर लापरवाही देखने को मिली, जिसके कारण इन डॉक्टरों के बारे में सही जानकारी समय रहते नहीं मिल पाई। विभागीय प्रक्रिया को बेहतर और सख्त बनाने की आवश्यकता थी ताकि ऐसे डॉक्टरों की पहचान समय रहते हो सके, जो सरकारी सेवा में काम नहीं कर रहे थे।

मंत्री की भूमिका और विभागीय सुधार की आवश्यकता

स्वास्थ्य मंत्री का यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में ऐसी स्थितियां न उत्पन्न हों। उन्हें विभागीय सुधारों की दिशा में काम करना होगा, ताकि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। यह कदम यह भी दर्शाता है कि विभाग को पारदर्शिता और जिम्मेदारी की दिशा में काम करने की आवश्यकता है। डॉक्टरों की नियुक्ति के साथ ही उनकी कार्यक्षमता और उपस्थिति पर नजर रखना आवश्यक है, ताकि मरीजों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मिल सकें।

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आगे की राह

स्वास्थ्य विभाग को अब इस मुद्दे के समाधान के लिए और कदम उठाने होंगे। यह कदम सही दिशा में तो है, लेकिन विभाग को यह सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न न हो, जहां डॉक्टर केवल कागजों पर मौजूद रहें। अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने के लिए विभाग को सक्रिय रूप से काम करना होगा। साथ ही, सरकारी अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों की कार्यक्षमता और उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। इसे केवल एक शुरुआत के रूप में देखा जाना चाहिए। विभाग को इस तरह की लापरवाही की पुनरावृत्ति रोकने के लिए दीर्घकालिक रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना होगा।