देहरादून। उत्तराखंड के नगर निकायों में तैनात नगर स्वास्थ्य अधिकारी का पद पिछले कई वर्षों से विवाद और अनियमितताओं के घेरे में है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि यह पद न तो स्वास्थ्य विभाग की किसी आधिकारिक संरचना में मौजूद है और न ही नगर निगम या नगर पालिका अधिनियमों में स्पष्ट रूप से परिभाषित। इसके बावजूद नगर निगमों में ये अधिकारी वर्षों से कार्यरत हैं, वह भी बिना किसी पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया, बिना स्थानांतरण व्यवस्था और बिना जवाबदेही के। राजधानी देहरादून सहित कई नगर निकायों में नगर स्वास्थ्य अधिकारी के पद पर ऐसे डॉक्टर तैनात हैं जिनकी मूल नियुक्ति स्वास्थ्य विभाग में होती है, लेकिन इनकी सेवाएं निगमों में ली जाती हैं। वेतन, ग्रेड-पे और अन्य लाभ स्वास्थ्य विभाग के खाते से जाते हैं, जबकि काम पूरा नगर निगम का किया जाता है। यह स्थिति खुद स्वास्थ्य विभाग के कई अधिकारियों को भी आश्चर्य में डालती है कि जब पद का ढांचा ही मौजूद नहीं, तब इसके समकक्ष वेतन और पदस्थापन किस आधार पर होता है।
सूत्र बताते हैं कि नगर निगम की ओर से आज तक नगर स्वास्थ्य अधिकारी के पद के लिए कोई औपचारिक प्रस्ताव विभाग को भेजा ही नहीं गया। इसका अर्थ यह हुआ कि न तो यह पद निगम का अधिकृत संवर्ग है और न ही स्वास्थ्य विभाग का। लेकिन इसके बावजूद निगमों को इन अधिकारियों की आवश्यकता रहती है, और मौन सहमति के तहत स्वास्थ्य विभाग के डॉक्टरों को इस पद पर “जमा” दिया जाता है।चौंकाने वाली बात यह है कि नगर निगम में वर्षों तक जमे रहने की एकमात्र शर्त सिस्टम में ऊंची पहुंच मानी जाती है। यही कारण है कि पद से जुड़े कितने भी विवाद सामने आए हों, न तो तबादला होता है और न ही किसी तरह की विभागीय कार्रवाई। कई मामलों में सफाई व्यवस्था, कूड़ा निस्तारण, ठेकेदारों की मनमानी और निरीक्षण रिपोर्टों में गड़बड़ी जैसे गंभीर आरोप लगे, लेकिन कार्रवाई की फाइलें कभी आगे बढ़ीं ही नहीं।
जानकार बताते हैं कि स्वास्थ्य विभाग हर साल नगर स्वास्थ्य अधिकारियों के नाम पर करोड़ों रुपये वेतन के रूप में वहन करता है, जबकि इनका पूरा कार्य नगर निगम के अधीन चल रहा होता है। यह व्यवस्था न सिर्फ शासन-प्रशासन के भीतर समन्वय की कमी को दर्शाती है, बल्कि वित्तीय और प्रशासनिक ढांचे में भी गंभीर खामियां उजागर करती है।
स्वास्थ्य विभाग के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारियों का कहना है कि यह पूरे सिस्टम का एक “ग्रे जोन” है, जहां नियमों की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर अधिकारी वर्षों तक प्रभाव और पद दोनों का आनंद उठाते रहते हैं। नगर निगमों के भीतर भी इन अधिकारियों की पकड़ इतनी मजबूत होती है कि कोई कार्रवाई की पहल होते-होते ही रुक जाती है।नगर निगम की कार्यप्रणाली से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि नगर स्वास्थ्य अधिकारी जैसे अहम पद को बिना संवर्ग, बिना जवाबदेही और बिना नियमों के चलाना न सिर्फ प्रशासनिक अव्यवस्था है, बल्कि सार्वजनिक हित के विपरीत भी है। साफ-सफाई, स्वास्थ्य निरीक्षण और कूड़ा प्रबंधन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में जिम्मेदारी तय करने की पहली कड़ी यही अधिकारी होते हैं। ऐसे में उनकी तैनाती और जवाबदेही स्पष्ट न होना गंभीर मुद्दा है।अब बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्य सरकार इस पूरे ढांचे को नियमित करने की दिशा में कदम उठाएगी? क्या नगर निगमों को अपने स्तर पर पद संरचना को स्पष्ट करने के लिए निर्देश दिए जाएंगे? या फिर यह अनियमित व्यवस्था आगे भी प्रभावशाली अधिकारियों के दम पर यूं ही चलती रहेगी?


