सत्ता के गलियारों में इन दिनों एक ऐसे नेता की सक्रियता ने प्रशासनिक तंत्र को गहरी चिंता में डाल दिया है, जिसकी पकड़ सत्तारूढ़ दल में बेहद मजबूत मानी जाती है। यह नेता अपने प्रभाव और रसूख का इस्तेमाल अधिकारियों पर उन कार्यों को कराने के लिए दबाव बनाने में कर रहा है, जो नियम-कानून के दायरे से बाहर हैं।
जानकारी के मुताबिक, यह नेता कई जिलों के जिला अधिकारियों पर लगातार दबाव बनाए हुए है। जिन अफसरों से उसकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं हो पातीं, वे तुरंत उसकी आंख की किरकिरी बन जाते हैं। नतीजतन ऐसे अधिकारियों को हटाने के लिए वह न सिर्फ राजनीतिक दबाव खड़ा करता है, बल्कि पर्दे के पीछे विभिन्न प्रपंच भी रचता है। सूत्र बताते हैं कि पिछले कुछ महीनों में जिन अधिकारियों के तबादले हुए हैं, उनमें से कई का नाम इसी नेता की “काली सूची” में शामिल था।
इस नेता का प्रभाव इतना गहरा है कि सिस्टम के तहत चाहे अधिकारी का ट्रांसफर सामान्य प्रक्रिया के अंतर्गत ही क्यों न हो, श्रेय लेने में वह सबसे आगे रहता है। पार्टी के भीतर और बाहर दोनों ही जगहों पर उसकी छवि ऐसे नेता की बन गई है जो अफसरशाही को अपने इशारों पर नचाने की ताकत रखता है। यही वजह है कि कई अधिकारी अब उसके नाम भर से सतर्क हो जाते हैं और किसी भी संवेदनशील निर्णय में अतिरिक्त सावधानी बरतने लगे हैं।
वहीं, प्रशासनिक गलियारों में इस बात को लेकर भी चर्चा है कि अगर इस तरह राजनीतिक दबाव बढ़ता रहा तो अफसरों की कार्यक्षमता पर गहरा असर पड़ेगा। नीति और नियमों के आधार पर निर्णय लेने की बजाय अधिकारी अनावश्यक दबाव और भय के चलते निर्णय लेने लगेंगे, जो शासन व्यवस्था के लिए घातक साबित हो सकता है। कई वरिष्ठ अधिकारी निजी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि हालात ऐसे बनते जा रहे हैं जहां नियम से ज्यादा महत्व “नेता की मर्जी” को मिल रहा है।
विशेषज्ञों का मानना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेताओं का जनहित के मुद्दों को उठाना और नीतिगत निर्णयों पर राय रखना उचित है, लेकिन यदि व्यक्तिगत लाभ या शक्ति प्रदर्शन के लिए अधिकारियों पर दबाव बनाया जाए तो यह न केवल प्रशासनिक ढांचे को कमजोर करता है बल्कि जनता की समस्याओं के समाधान में भी देरी होती है।
सूत्रों के मुताबिक, पार्टी नेतृत्व भी इस स्थिति से वाकिफ है लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। अंदरखाने की चर्चाओं के अनुसार, संगठन के शीर्ष नेता इस नेता के प्रभाव से भलीभांति परिचित हैं और किसी टकराव से बचने की रणनीति के तहत चुप्पी साधे हुए हैं।
इस पूरे घटनाक्रम ने प्रदेश की नौकरशाही में असहजता का माहौल बना दिया है। कई ईमानदार और निष्ठावान अफसर अपने भविष्य को लेकर असमंजस में हैं। सवाल यह है कि क्या सरकार इस तरह के दबावों से अफसरों को मुक्त कर पाएगी या फिर सत्ता का यह खेल यूं ही चलता रहेगा?
